Bushahr Riyasat ka Dumh Aandolan

Bushahr Riyasat ka Dumh Aandolan (बुशैहर रियासत का दुम्ह आंदोलन)

WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now
Instagram Group Join Now

बुशैहर रियासत का दुम्ह आंदोलन: दूम्ह आन्दोलन में जब कभी राजा कोई ऐसा काम करता या भूमि कर लगाता था, जिसको लोग अनुचित और अन्याय पूर्ण समझते थे तो वे अपना रोष व विरोध प्रदर्शित करने के लिये गांव को छोड़कर पास के जंगल में चले जाते थे। वे अपने परिवार और पशुओं को भी साथ ले जाते थे। फलस्वरूप खेती-बाड़ी का काम ठप्प पड़ जाता था। खेत बंजर पड़ जाते थे।

Bushahr Riyasat ka Dumh Aandolan

दूम्ह आन्दोलनकारियों को तो इससे कष्ट होता ही था, पर राज्य को भी इससे भारी क्षति होती थी। जब खेती ही नहीं होती थी तो राज्य की आय भी प्रभावित होती थी। ऐसे आन्दोलन से सत्ता विचलित हो जाती थी और आन्दोलनकारियों की मांग पूरी करने का अविलम्ब प्रयास करती थी।

दूम्ह आन्दोलन प्रायः व्यवस्थित और शातिंपूर्वक होता था । सुलह – समझौता होने पर लोग अपने घरों को वापिस आते और पुन: अपने व्यवसाय खेती-बाड़ी और दूसरे कार्यों को सम्भालते थे ।

बुशहर रियासत में सन् 1859 में दूम्ह आन्दोलन हुआ। इसका प्रमुख केन्द्र रोहडू का क्षेत्र था। इसके कई कारण थे, परन्तु मुख्यत: यह सन् 1854 में सम्पन्न हुई जमीन की पैमाइश के विरुद्ध था। नूरपुर निवासी तहसीदार श्यामलाल ने उक्त समय जमीन का बन्दोबस्त किया और नकदी लगान निश्चित किया। उसके पूर्व भूमि उपज के रूप में पैदावार का निश्चित भाग, अन्न, घी, तेल, ऊन, भेड-बकरी आदि प्राचीन प्रथा के अनुसार राज्य को कर के रूप में देने पड़ते थे।

इस आन्दोलन से बुशैहर रियासत में अशांति फ़ैल गई और सरकार विचलित हो गई। राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत भूमि लगान था। खड़ी फसलें नष्ट हो जाने और खेती -बाड़ी का काम रुक जाने से राज्य को भारी हानि होने लगी तथा साथ ही रियासत में विद्रोह भड़कने की भी आशंका उत्पन्न हो गई।

इस आन्दोलन का सम्बन्ध तत्कालीन राज्य-व्यवस्था से भी था । इन्हीं वर्षों में खानदानी वजीरों की प्रथा समाप्त कर दी गई थी। किन्नौर के पुआरी वरजीरों ने भी इस आन्दोलन को तूल दी। मालगुजारी देने के लिये लोगों के पास मुद्रा का भी अभाव रहता था।

इस दूम्ह आन्दोलन को समाप्त करने के लिये अंग्रेज सरकार का हस्तक्षेप आवश्यक हो गया था।इसको सुलझाने के लिये पहले शिमला के डिप्टी कमीशनर विलियम हेय और फिर रियासतों के सुपरिन्टेण्डेंट जार्ज कारनेक बार्नस बुशहर गये और राजा शर्मशेर सिंह से विचार-विमर्श किया किसानों ने आंदोलन समाप्त करने के लिये तीन मांगे रखी। खानदानी वजीरों को पुराने दस्तूर के अनुसार सत्ता सोपना। उस समय की लगान व्यवस्था समाप्त करना और तीसरी लगान की वसूली परम्परागत ढंग से उपज और वस्तुओं के माध्यम से करना। सुपरिन्टेण्डेंट बार्नस ने आंदोलन की गम्भीरता को देखते हुये तीनों मांगे मान ली । इस प्रकार बुशहर के किसान राजा और अंग्रेज सरकार से अपनी मांगे मनवाने में सफल हुये।

एक ओर इस प्रकार के आन्दोलन चल रहे थे तो दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार अपने देश की संवैधानिक एवं प्रशासनिक परम्पराओं एवं प्रणालियों को धीरे-धीरे भारत में प्रवेश करवा रही थी। 1861 ईस्वी में इंग्लैंड में ‘भारत परिषद् अधिनियम 1861’, पास हुआ। सन् 1861 ईस्वी में ही ‘इण्डियन सिविल सर्विसेज ऐक्ट 1861’ भी पारित हुआ। इस ऐक्ट के अनुसार भारतीयों को राजकीय सेवाओं में यूरोपीय नागरिकों के साथ समान अवसर और अधिकार प्रदान किए गए। इस प्रकार भारतीय नागरिकों को ब्रिटिश प्रशासन में प्रवेश मिलने का रास्ता खुल गया। तत्कालीन हिमाचल के ब्रिटिश शासित क्षेत्रों जैसे जिला कांगड़ा और शिमला में योग्यता और प्रतियोगिता के आधार पर राजकीय सेवा में नियुक्ति का कानून औपचारिक रूप से लागू किया गया, परन्तु अन्य पहाड़ी रियासतों में वंश-परम्परा की प्रशासन पद्धति चलती रही। रियासत के वजीर, दीवान, पुरोहित, नेगी, विष्ट, कायथ, वैद्य, मुन्शी और अन्य कर्मचारी वंश परम्परा के अनुसार ही नियुक्त किये जाते थे। ये कर्मचारी अपने-अपने कार्य क्षेत्र में राजा की लापरवाही और अयोग्यता का लाभ उठाते हुए प्रजा पर निरंकुश नियन्त्रण रखते थे। अनेक पहाड़ी रियासतों में प्रजा प्रायः वज़ीर और उसके अधीन कर्मचारियों के कुप्रशासन और दमन से परेशान थी। इसीलिए समय-समय पर अधिकतर आन्दोलन वज़ीरों और अन्य प्रशासनिक अधिकारियों के दमन और अत्याचारों के विरूद्ध होते रहे। कई मामलों में वजीर व सेनापति राजा की बाल्यावस्था व कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर निरंकुश शासन चलाते थे। नई व्यवस्था तथा कानून के लागू होने व शिक्षा के प्रसार से लोगों में राजनीतिक जागरूकता आ रही थी।

Bushahr Riyasat ka Dumh Aandolan

इसे भी पढ़ें : पझौता किसान आंदोलन

Leave a Comment

error: Content is protected !!