Brief History of District Shimla -Himachal | शिमला जिला का इतिहास

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शिमला जिला की सीमाएं किन्नौर, कुल्लू, मंडी, सोलन और सिरमौर जिलों से लगती है। वर्तमान शिमला जिला का निर्माण विभिन्न छोटी बड़ी रियासतों को मिलाकर बना है। शिमला पहाड़ी रियासतों में बुशहर सबसे बड़ी और रतेश सबसे छोटी रियासत है। शिमला जिले की पहाड़ी रियासतों का विवरण निम्नलिखित है :-

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जुब्बल रियासत

जुब्बल रियासत शिमला के पूर्व दिशा में रामपुर बुशहर तथा सिरमौर के बीच में स्थित थी। जुब्बल रियासत की स्थापना बारहवीं शताब्दी के अंत मे 1195 ई. में उगरचन्द के पुत्र कर्म चन्द ने की थी। कर्मचन्द के दूसरे भाई मूल चंद ने ‘सारी’ राज्य और तीसरे भाई ने राविंगढ़ राज्य की स्थापना की । करमचद ने रियासत की राजधानी सोनपुर में स्थापित की फिर बाद में उन्होंने पुराना जुबल में स्थानांतरित किया।

अमर चन्द :

करमचंद के बाद जोधपुर रियासत के राजाओं में अमरचंद का नाम आता है। राजा अमर सिंह ने झांई नाम के एक उद्यमी व्यक्ति को अपना मंत्री बनाया । झांई राम ने जुब्बल रियासत की सीमाओं को बहुत बढ़ाया।

राजा किरती चन्द :

राजा किरती चन्द का समय शांति और समृद्धि का रहा। उसके शासनकाल में कोई उलेखनीय घटना नहीं घटी।

राजा भाग चन्द :

राणा भागचंद ने बहुत ठाकुरों को जीतकर अपने रियासत के क्षेत्र का विस्तार किया। उन्होंने भागचंद के विरुद्ध गढ़वाल के राजा से सहायता मांगी। स्थिति से लाभ उठाकर गढ़वाल के राजा ने जुब्बल पर आक्रमण किया। गढ़वाल के राजा ने जुब्बल के राजा भागचंद को बंदी बनाकर गढ़वाल ले गया। इसी अवधि में राजा को गढ़वाल के राजा की पुत्री से प्रेम हो गया। लेकिन विवाह से इनकार कर दिया। बाद में राजा भाग चन्द वहाँ से भाग कर जुब्बल पहुँचा। उसके बाद राजा ने दस वर्ष जुब्बल पर शासन किया और अपनी रियासत की सीमा को मजबूत किया।

नारायण चन्द :

राजा भाग चन्द के बाद नारायण चन्द ने शासन किया। राजा नारायण चन्द को सिरमौर के राजा ने धोखे से बंदी बनाया था जहाँ उसकी मृत्यु हो गई।

हुक्कम चन्द :

हुक्कम चन्द ने राविंगढ़ के क्षेत्र बटाढ़, शालाड़ और मलोग को अपने अधीन कर लिया।

राणा गौहर चन्द :

राणा गौहर चन्द ने जुब्बल की राजधानी पुराना जुब्बल से देवरा (वर्तमान जुब्बल) स्थानांतरित की।

राजा पूर्ण चन्द :

राजा पूर्ण चन्द के समय गोरखों ने आक्रमण किया। गोरखों ने बजीर दांगी और अन्य लोगों को पकड़कर अर्की भेज दिया। जुब्बल, सारी, राविं आदि रियासतों के प्रशासन चलाने के लिए गोरखों ने हाटकोटी के निकट पब्बर नदी के बाएं किनारे पर स्थित राविंगढ़ किला में अपना मुख्यालय स्थापित किया।

दांगी बजीर ने गोरखों को भगाने के लिए अंग्रेजों का साथ दिया। गोरखों को भगाने के बाद अंग्रेज सरकार ने 18 नवंबर 1815 ई. को एक सनद द्वारा राणा पूर्ण चन्द को पीढ़ी दर पीढ़ी राज्य करने के लिए लौटा दिया गया।

अंग्रेज सरकार ने 1833 ई. में प्रशासन संभालने के पश्चात कैप्टन कैनेडी ने जुब्बल के मुख्यों सहायता से जुब्बल का भूमि बंदोबस्त किया। यह कार्य मौलक राम ने किया जो उस समय वहां का मैनेजर भी था।

कर्म चन्द :

पूर्ण चंद की मृत्यु के पश्चात सरकार ने करम चंद को वास्तविक हकदार मानकर पूर्णचंद का राज्य उसे लौटा दिया इस समय उसकी आयु केवल 5 वर्ष की थी। इसलिए सरकार ने जुब्बल में एक अन्य तहसीलदार को प्रबंधक के रूप में नियुक्त किया। सन 1853 ई. में राणा कर्म चन्द की आयु 18 वर्ष की हो गई। अतः सरकार ने जुब्बल का 20 वर्ष तक प्रशासन चलाने के पश्चात राणा को जुब्बल की ठकुराई और राज्य करने के पूर्ण अधिकार लौटाने का निर्णय लेकर उसी वर्ष के नवंबर या दिसंबर मास में गद्दी पर बैठाया।

राणा करम चंद बड़ा कला प्रेमी था। उसने खूबसूरत पहाड़ी पर गिरी गंगा के उद्गम के निकट शिखर शैली के कई मंदिर बनवाया जिसमें मुख्य है- गंगा, शिव, विष्णु और काली के मंदिर। उनके लिए संगमरमर की मूर्तियां जयपुर से मंगवाई गई था ।

पदम चन्द :

करम चंद की मृत्यु के बाद पदम चंद गद्दी पर बैठा। पदम चन्द की आयु छोटी होने के कारण सरकार ने प्रशासन चलाने के लिए जुब्बल के चार व्यक्तियों को नियुक्त करके एक परिषद बनाई इस परिषद में राणा पदमचंद को भी रखा गया। इन 4 व्यक्तियों के नाम थे – चरणदास, गोसाई, कालसी और शुरू ।

पदम चन्द के समय सिरमौर, बुशहर, थारोच और राविंगढ़ के साथ जुब्बल की सीमा संबंधी विवाद चलते रहे। पदमचंद ने देवरा में एक नया महल और एक शिव मंदिर बनाया। हाटकोटी में दुर्गा के मंदिर पर छत लगवाया और उस पर सोने का कलश चढ़ाया।

ज्ञान चन्द :

राणा पदमचंद की मृत्यु के समय ज्ञान चन्द की आयु 11 वर्ष की थी। वजीर भगवान दास ने रियासत के मैनेजर के रूप में प्रशासन का कार्यभार संभाला। 1908 ई. में सरकार ने राणा ज्ञानचंद को राज्य के पूरे अधिकार दे दिए लेकिन 2 वर्ष बाद 1910 में राणा ज्ञानचंद की मृत्यु हो गई।

भक्त चन्द :

राणा ज्ञानचंद की मृत्यु 23 वर्ष की आयु में हो गई थी। उनके कोई संतान नहीं थी। भक्त चन्द ज्ञान चन्द का सौतेला भाई था। 1911 ईस्वी में अंग्रेज सम्राट जॉर्ज पंचम का दरबार दिल्ली में हुआ इसमें जुब्बल के राणा भक्तचंद को भी भारत सरकार ने आमंत्रित किया था। 1945 में जुब्बल मैं हाई स्कूल और शिमला में पहाड़ों पर शिक्षा प्रसार के लिए अपने पिता पदमचंद की स्मृति में सनातन धर्म कॉलेज खोला।

1918 ई. में सरकार ने राणा भक्त चन्द को राजा की वंशागत उपाधि से सम्मानित किया। 1928 ईस्वी में C.S.I. और 1936 में KCSI की उपाधियों से सम्मानित किया। राजा भक्त चंद को 1921 में और 1933 में शिमला की पहाड़ी रियासतों की और से चैम्बर ऑफ प्रिन्सिज (मंडल) के लिए चुना गया। पहाड़ी रियासतों में चंबा के पश्चात केवल जुब्बल ही एकमात्र ऐसी रियासत थी जिसने 1926 में जुब्बल में जल से बिजली पैदा की। 1933 में वायसराय लार्ड इर्विन ने जुब्बल का दौरा किया था।

12 अक्टूबर, 1946 को भक्त चंद ने अपने जन्मदिन पर अपने पुत्र दिग्विजय चंद को राज्य के पूर्ण अधिकार सौंप कर उसे गद्दी पर बैठाया।

दिग्विजय चन्द :

दिग्विजय चंद जुब्बल रियासत के अंतिम शासक थे। राणा दिग्विजय की दो पुत्रियां और दो पुत्र हुए । प्रथम पुत्री महारानी देवेंद्र कुमारी का विवाह सरगुजा के महाराजा मदनेश्वर सिंह से हुआ और दूसरी पुत्री राजकुमारी रतन कुमारी का विवाह बुशहर के राजा तथा 6 बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने वीरभद्र सिंह से हुआ। राणा दिग्विजय जी के दो पुत्रों में से एक टिक्का दिगपाल चंद और दूसरे राणा योगेंद्र चंद।

जुब्बल को 15 अप्रैल 1948 ई. में महासू जिला में मिलाया गया।

बुशहर रियासत

बुशहर रियासत की स्थापना श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न ने की थी। वह अपने पुत्र अनिरुद्ध का विवाह करने शोणितपुर (सराहन) के राजा बाणासुर की पुत्री से करने आए थे। बाणासुर की मृत्यु के बाद प्रद्युमन ने बुशहर रियासत की स्थापना की और कामरु को बुशहर रियासत की राजधानी बनाया।

बुशहर रियासत के बारे में हमने किनौर जिले का इतिहास में चर्चा की है।

यहाँ पढ़े : बुशहर रियासत का इतिहास

सारी रियासत

सारी रियासत प्राचीन सिरमौर के अंतिम राजा उग्रसेन के दूसरे पुत्र मूलचंद ने सारी रियासत की स्थापना लगभग उसी समय कि जिस समय उसके बड़े भाई कर्म चंद ने जुब्बल राज्य की नींव डाली। यह रियासत पब्बर नदी के तट पर स्थित थी और इसकी सीमाएं रामपुर बुशहर के निकट नोगली खड्ड तक फैली हुई थी। रोहड़ू रियासत सारी रियासत के अंतर्गत आती थी वंशावली की उपलब्धता न होने के कारण यह कहना कठिन है कि सारी रियासत में कितने शासक हुए। ब्रिटिश सरकार ने 1864 ईस्वी में सारी रियासत को नजराने के रूप में बुशहर रियासत को दे दिया था।

राविंगढ़ (रावीं)

राविंगढ़ रियासत की स्थापना सिरमौर के राजा उग्रसेन के तीसरे पुत्र दुनीचंद ने की थी। सिरमौर के राजा वीर प्रकाश ने राविंगढ़ दुर्ग की स्थापना की। 1844 ई. में अंग्रेज अधिकारी अरस्किन ने राविंगढ़ का बंदोबस्त किया । 1896 ई. में भारत सरकार राविंगढ़ को जुब्बल के अधीन कर लिया। उस समय ठाकुर हरि चन्द ने इसका विरोध किया।

1830 ई. में अंग्रेजों ने राविनगढ़ का क्षेत्र क्योंथल को दे दिया था तथा इसके बदले में शिमला शहर की जगह ले ली थी। वर्तमान में राविनगढ़ जुब्बल तहसील का हिस्सा है।

बलसन रियासत

बलसन रियासत यमुना की सहायक नदी गिरी के पार अवस्थित थी। बलसन रियासत नदी के ऊपर घाटी में जुब्बल कोटखाई के मध्य भाग में फैली हुई थी इसके दक्षिण में सिरमौर लगता था। बलसन के इतिहास के अनुसार इस रियासत की नींव प्राचीन सिरमौर के राज परिवार के एक सूर्यवंशी राठौड़ अलक सिंह ने डाली ।

यह रियासत 1805 ईस्वी से पूर्व सिरमौर रियासत की जागीर थी। गोरखा आक्रमण के समय यह रियासत कुमारसेन की जागीर थी और इस पर जोगराज का राज था।

जोगराज सिंह ने गोरखा युद्ध में ब्रिटिश सरकार की सहायता की और नागिन दुर्ग डेविड ऑक्टरलोनी को सौंप दिया था। बलसन के शासक ठाकुर जोगराज को स्वतंत्र सनद 1815 में प्रदान की गई।

बलसन रियासत ने 1857 ईसवी. के विद्रोह में ब्रिटिश सरकार का साथ दिया और बहुत से यूरोपीय नागरिकों ने अपने यहां शरण दी। बलसन के शासक जोगराज को ब्रिटिश सरकार ने 1858 ई. में खिल्लत और राणा का खिताब दिया।

राणा बहादुर सिंह 1936 से 1943 तक बलसन का राणा रहा। बलसन का अंतिम शासक विद्याभूषण सिंह था। 15 अप्रैल 1948 ई. को बलसन रियासत हिमाचल प्रदेश का एक हिस्सा बन गई तथा वर्तमान में ठियोग तहसील जिला शिमला का हिस्सा है।

कुमारसेन रियासत

कुमारसेन रियासत की स्थापना गया (बिहार) से आए किरात चंद ने की थी। किरात चन्द (सिंह) महमूद गजनवी के आक्रमण के भय से भागकर इन पहाड़ों में आए थे।

अजमेर सिंह :

अजमेर सिंह के समय कुल्लू का राजा मानसिंह था। कुल्लू के इतिहास में पता चलता है कि मान सिंह बुशहर के क्षेत्र बाहरी सिराज के भाग के कोठी पन्द्रबिश पर अधिकार कर लिया था। अजमेर सिंह ने कुल्लू के राजा मानसिंह को हराकर ‘सारी’ और ‘शांगरी’ किले पर कब्जा किया था।

अनूप सिंह : इस राणा के संबंध में कोई जानकारी नहीं मिलती।

दलीप सिंह :

दलीप सिंह को उसके अपने भाई ने षडयंत्र रचा और उसे कुल्लू यह कहकर भेजा कि कुल्लू की गद्दी खाली पड़ी है। कुल्लू में पहले तो उसके बड़ी आव भगत हुए लेकिन बाद में इसे मार दिया गया। उसके बाद राम सिंह कुमारसेन का राजा बना।

गोवेर्धन सिंह : राम सिंह के उपरांत गोवर्धन सिंह गद्दी पर बैठा।

केहरी सिंह :

राणा गोवर्धन सिंह के कोई संतान नहीं थी अतः उसकी मृत्यु के पश्चात उसका छोटा भाई केहरी सिंह गद्दी पर बैठा उस समय कुमारसेन बुशहर का अधिपत्य था। 1810 में गोरखों ने कुमारसेन पर अधिकार कर लिया। गोरखों के चले जाने के बाद 7 फरवरी 1816 ई. को अंग्रेज सरकार में सनद द्वारा उसकी रियासत उसे वापिस दे दी। केहरी सिंह की मृत्यु 1839 ईस्वी में हुई।

प्रीतम सिंह : प्रीतम सिंह ने प्रथम सिख युद्ध के समय अंग्रेजों का साथ दिया। 1857 के विद्रोह में भी कुमारसेन ने ब्रिटिश सरकार की सहायता की।

भवानी सिंह : प्रीतम सिंह के उपरांत उसका पुत्र भवानी सिंह गद्दी पर बैठा।

हीरा सिंह :

हीरा सिंह कमजोर बुद्धि का था। इसलिए राज्य का प्रशासन 1874 से 1896 ई. तक एक परिषद ने चलाया। यह कॉउंसिल सलाहकार समिति 1904 तक कार्य करती रही। 1914 में हीरा सिंह की मृत्यु हुई।

विद्याधर सिंह :

विद्याधर सिंह को 12 नवंबर 1915 को गद्दी पर बैठाया। उस समय उसे मैनेजर के अधिकार दिए गए और 1920 में उसे राज्य के पूर्ण अधिकार दिए गए परंतु मृत्यु दंड देने के लिए भारत सरकार के पोलिटिकल एजेंट से अनुमति लेनी पड़ती थी।

राणा सुमेश्वर सिंह (1945-1949 तक) कुमारसेन के अंतिम शासक थे। कुमारसेन को 15 अप्रैल 1948 को महासू जिला का भाग बनाया गया।

देलठ रियासत

देलठ रियासत की स्थापना किरत चन्द के भाई पृथ्वी सिंह ने की थी। यह ठकुराई क्षेत्र तथा जनसंख्या के लिहाज से बहुत छोटी थी और अधिकांशत यह बुशहर के आधिपत्य में रही। 1810 से 1815 तक यह गोरखों के अधीन रही थी।

1815 के बाद देलठ रियासत को अंग्रेजी सरकार ने बुशहर के अधीन रखा। 15 अप्रैल 1948 तो बुशहर के साथ उसका विलय हिमाचल प्रदेश के साथ हुआ तथा महासू जिला का अंग बना। वर्तमान में यह रामपुर तहसील का हिस्सा है।

खनेटी रियासत

खनेटी रियासत की स्थापना कुमारसेन रियासत के संस्थापक कीरत चन्द के पुत्र सबीर चन्द ने की थी।

वीर चंद (1550 ई.) : वीर चन्द को बुशहर ने परास्त किया और उसके कई गांव पर अधिकार किया।

प्रताप चन्द के समय मे भी ठकुराई का कुछ भाग हाथ से जाता रहा।

रसाल चन्द के समय मे गोरखों का आक्रमण हुआ। ब्रिटिश सरकार ने 16 फरवरी 1816 ई. को खनेटी ठकुराई बुशहर को दी।

नैण चन्द : 1816 से लेकर 1859 तक खनेटी और बुशहर के आपसी संबंधों में भ्रांति रही। पहले ठाकुर अपने क्षेत्र का प्रशासन स्वयं चलाता रहा। परंतु बुशहर के अधीन होने के कारण बुशहर ने वहाँ अपना एजेंट रखा।

सरन चन्द (1858-1888) : इस समय पर बुशहर में राजा शमशेर सिंह का राज था।

लाल चंद (1888-1899) : लाल चन्द भी उन्मादी था। इसलिए प्रशासन का काम उसका भाई जालिम सिंह चलाता रहा।

लाल चन्द के बाद अमोघ चन्द और कृष्ण चन्द ने खनेटी में शासन किया। 15 अप्रैल 1948 को इसे हिमाचल राज्य में मिला लिया गया।

कोटखाई रियासत

कोटखाई रियासत की स्थापना कुमार सेन के प्रथम ठाकुर कीरत सिंह के एक वंशज अहीमल सिंह ने की थी। कोटखाई, कुमारसेन, कुल्लू और बुशहर की जागीर रही थी। कोटखाई रियासत पर 1810 से 1815 ईस्वी तक गोरखों के कब्जे में रही। 1815 ई. में गोरखों की पराजय के पश्चात कोटखाई का क्षेत्र अंग्रेजों की अधिकार में आ गया। अंग्रेज सरकार ने अन्य ठकुराइयों की तरह कोटखाई की ठकुराई भी उसके राणा रणजीत सिंह को कुछ शर्तों पर पर लौटा दी। परंतु अंग्रेज सरकार ने कोटगढ़ का क्षेत्र अपने पास रखा। 15 अप्रैल 1948 ई. को कोटखाई रियासत हिमाचल का हिस्सा बनी।

कारांगला रियासत :

कारांगला रियासत की स्थापना कुमारसेन के संस्थापक कीरत सिंह के वंश के एक संसार चंद नाम के व्यक्ति ने की थी। कारांगला रियासत बुशहर रियासत की जागीर थी।

ठियोग रियासत

ठियोग रियासत की स्थापना कहलूर के जयचंद ने की थी। ठियोग रियासत क्योंथल रियासत की जागीर थी। 1810 से 1815 तक ठियोग रियासत भी गोरखों के अधिकार में थी। ठियोग वंशावली अप्राप्य होने के कारण ठीक से कहा नहीं जा सकता है कि इस ठुकराई के कौन-कौन और कितने ठाकुर हुए गोरखा युद्ध के समय भूप चंद ठियोग का ठाकुर था। उसका व्यवहार ठीक ना होने के कारण सरकार ने 1856 ईसवी में गद्दी से उतार दिया था। उसे जीवन यापन के लिए सरकार ने ₹500 मासिक पेंशन आ गई थी। उसकी मृत्यु 1866 में हो गई थी।

हरि चन्द : भूपचंद के बाद हरिचंद ने ठियोग की गद्दी संभाली। हरि चंद का विवाह बलसन के राणा की पुत्री से हुआ था। उसकी 1893 में मृत्यु हो गई तथा उसके बाद उसका पुत्र शमशेर सिंह गद्दी पर बैठा।

कृष्ण चन्द ठियोग का अन्तिम शासक था। 1939 के पश्चात शिमला की पहाड़ी रियासतों में प्रजा मंडल ने जोर पकड़ा ठियोग में भी सूरत राम प्रकाश के नेतृत्व में प्रजामंडल ने आंदोलन चलाया। ठियोग के ठाकुर ने 15 अगस्त 1947 को सूरत रामप्रकाश के नेतृत्व में एक विधान परिषद नियुक्त की गई जिसमें 13 सदस्य थे। सूरत राम प्रकाश को प्रधानमंत्री बनाया गया। ठियोग रियासत भारत में विलय होने वाली हिमाचल प्रदेश की पहली रियासत थी।

मधान रियासत

मधान रियासत की स्थापना कहलूर रियासत के राजा भीम चन्द के दूसरे पुत्र और जैस चन्द (ठियोग) तथा जनजान सिंह (घुंड) के भाई भूप चन्द ने की थी। मधान क्योंथल रियासत की जागीर थी।

इस रियासत पर भी 1810 से 1815 तक गोरखों का अधिकार रहा। इस रियासत के 27 शासक हुए। नरेंद्र सिंह इस रियासत के अंतिम शासक थे। 15 अप्रैल 1948 को मधान को ठियोग के साथ मिलाकर ठियोग तहसील बना दी गई जो तत्कालीन महासू जिले का हिस्सा थी तथा अब शिमला जिले का हिस्सा है।

घुंड रियासत

घुंड रियासत की स्थापना जनजान सिंह ने की घुंड रियासत क्योंथल रियासत की जागीर थी। जो 1815 इसमें पुनः क्योंथल रियासत की जागीर बन गई। घुंड रियासत के अंतिम शासक रणजीत सिंह थे। घुंड रियासत को ठियोग के साथ मिलाकर ठियोग तहसील बना दी गई जो तत्कालीन महासू जिले का हिस्सा थी तथा अब शिमला जिले का हिस्सा है।

रतेश रियासत

रतेश रियासत क्योंथल रियासत की जागीर थी। यह रियासत भीतरी गिरी नदी घाटी में स्थिति थी। इस रियासत की स्थापना कर्म प्रकाश (सिरमौर) के भाई राय सिंह ने की थी। राजा सोमर प्रकाश ने रतेश को रियासत की राजधानी बनाया। रतेश सबसे छोटी रियासत (2 वर्ग मील) थी। रतेश सिरमौर और क्योंथल की जागीर रही। गोरखा आक्रमण के समय किशन सिंह ने सिरमौर से भाग कर अपनी जान बचाई। ठाकुर शमशेर सिंह रतेश के आखिरी शासक थे। वह 1925 में गद्दी पर बैठा। हिमाचल में विलय के सहमति पत्र पर शमशेर जी ने हस्ताक्षर किए थे। 15 अप्रैल 1948 में रतेश हिमाचल में मिल गया।

थरोच रियासत

थारोच रियासत की स्थापना उदयपुर की सिसोदिया वंश के राजकुमार किशन सिंह ने की थी जिसे थरोच जागीर उपहारस्वरूप सिरमौर रियासत से प्राप्त हुई थी।

जब गोरख आये तो कर्म सिंह थारोच का राणा था। 1815 ईस्वी में गोरखा इस देश को छोड़ कर चले गए तो अंग्रेज सरकार ने कर्म सिंह को थरोच का ठाकुर स्वीकार किया।

ब्रिटिश सरकार ने 1843 ईस्वी को थरोच से अपना नियंत्रण हटा कर रणजीत सिंह को गद्दी पर बैठाया। थरोच रियासत के अंतिम शासक ठाकुर सूरत सिंह को “राणा” की स्थाई उपाधि मिली। थरोच रियासत को 15 अप्रैल 1948 को चौपाल में मिलाकर (महासू जिला) हिमाचल प्रदेश का भाग बनाया गया।

ढाढी रियासत

ढाढी रियासत थरोच की प्रशाखा थी। ढाढी ठकुराई टौंस और पब्बर नदियों के संगम से भीतर पब्बर के दाहिने ढलवान पर स्थित थी। प्रारंभिक काल में यह रियासत थरोज के अधीन थी। परंतु बाद में यह बुशहर के अधीन हो गई। गोरखा अधिपत्य के समय उन्होंने इसे राविनगढ़ ठुकराई में मिला दिया गया। 1896 ई. में राविंगढ़ और ढाढी को जुब्बल रियासत की जागीर बना दिया गया। ढाढी रियासत का अंतिम शासक धर्म सिंह था। 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल प्रदेश बनने पर इस ठकुराई के क्षेत्र को महासू जिला की जुब्बल तहसील में मिला दिया गया।

दारकोटी रियासत

दारकोटी रियासत गिरी नदी के भीतरी छोर पर स्थित थी। दारकोटी रियासत की स्थापना मारवाड़ (जयपुर) से आए दुर्गा चन्द ने की थी। इस ठकुराई के 26 ठाकुर हुए थे। अंग्रेज सरकार द्वारा गोरखों के निष्कासन के उपरांत शीशराम (सतीश राम) को गद्दी पर बैठाया। 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल प्रदेश के निर्माण के समय से महासू जिले का अंग बनाया गया।

शांगरी रियासत

शांगरी सियासत कोटगढ़ और कुमारसेन के निकट सतलुज के बाएं और स्थिति थी। यह रियासत कभी बुशहर की अधिकार में रही तो कभी कुमारसेन के। परंतु अधिकांश इस पर बुशहर का अधिकार रहा। 18वीं शताब्दी में कुल्लू के राजा मानसिंह ने सतलुज नदी को पार करके शांगरी पर अधिकार कर लिया और वहां के ठाकुर को जागीर देकर उस क्षेत्र को अपने राज्य कुल्लू में मिला लिया। उसने कालगढ़ में एक किला भी बनाया।

गोरखा-ब्रिटिश युद्ध (1815) के बाद विक्रम सिंह शांगरी के शासक बने। शांगरी रियासत 1815 ईस्वी. में कुल्लू रियासत को सौंपी गई। हीरा सिंह को 1887 ई. में राय की उपाधि प्रदान की गई। राय रघुवीर सिंह शांगरी रियासत के अंतिम शासक थे।

15 अप्रैल 1948 को शांगरी हिमाचल प्रदेश का अंग बन है तथा तत्कालीन महासू जिला में शामिल किया गया।

क्योंथल रियासत

क्योंथल रियासत की स्थापना सुकेत रियासत के संस्थापक वीरसेन के छोटे भाई गिरीसेन ने 1211 ई. में की थी। 1800 ई. से पूर्व क्योंथल रियासत के अधीन 18 ठकुराइयाँ थी। कोटी, घुंड, ठियोग, मधान, महलोग,कुठाड़, कुनिहार, धामी, थरोच, शांगरी,कुमारसेन, रजाना, खनेटी, मैली,खालसी, बघारी, दीघयाली और घाट ।

फिरोजशाह तुगलक ने क्योंथल और सिरमौर 1379 ई. को अपने अधिपत्य में लिया। सिरमौर के राजा महिप्रकाश ने क्योंथल के राणा अनूप सिंह की पुत्री का हाथ मांगा। परंतु अनूप सेन ने इससे इंकार कर दिया। सिरमौर के राजा ने क्योंथल पर आक्रमण कर दिया। यह लड़ाई “देशु की धार” पर हुई। इसमें मही प्रकाश की हार हुई। उसने अपने संबंधी गुलेर के राजा से सहायता मांगी और लड़ाई करके क्योंथल के राणा अनूपसेन को परास्त किया।

पृथ्वी सेन के समय कुमारसेन के राणा राम सिंह ने क्योंथल अधिनस्थ बलसन ठकुराई को अपने अधीन कर लिया था। 1809 ई. में जब गोरखों ने आक्रमण किया तो क्योंथल के राणा रघुनाथ सेन भाग कर सुकेत चले गए। क्योंथल की 18 ठकुराईयाँ 1814 ई. में अलग हुई। वर्ष 1815 में घुंड, मधान, रतेश, ठियोग और कोटी ठाकुराइयाँ क्योंथल रियासत के अधीन आईं। क्योंथल की राजधानी जुन्गा थी।

संसार सेन :

1815 के गोरखा युद्ध के पश्चात रघुनाथ सेन के पुत्र राणा संसार सेन सुकेत से वापस लौट आया। अन्य पहाड़ी राजाओं तथा ठाकुरों की भांति सरकार ने क्योंथल के राणा संसार सेन को उसके 6 सितंबर 1815 की सनद द्वारा वापिस लौटा दिया गया। राणा संसार सेन ने 1857 ई. के विद्रोह में अंग्रेजों की मदद की जिसके बदले उन्हें ‘राजा’ की उपाधि और ‘खिल्लत’ प्रदान किया गया । संसारसेन की 1862 ई. में मृत्यु हो गई। इसके पश्चात उसका पुत्र महिंदर सेन क्योंथल का राजा बना।

बलवीर सेन :

1882 ई. में बलवीर सेन गद्दी पर बैठा। उस के समय में रियासत के भीतर असंतोष फैला रहा। उसने 1901 में रियासत का भूमि बंदोबस्त कराया। बलवीर सेन की सन 1901 में मृत्यु हो गई।

विजय सेन :

1911 ई. में दिल्ली दरबार के समय विजय सिंह को भी आमंत्रित किया गया था। इस राजा के समय 1912 में दोबारा भूमि बंदोबस्त आरंभ हुआ और 1915 में पूरा हुआ। इसी राजा के कार्यकाल में कालका शिमला राष्ट्रीय राजमार्ग के निर्माण हेतु भूमि उपलब्ध करवाई गई । 1916 ई. में विजय सेन की मृत्यु हो गई।

हमेंद्र सेन :

हमेन्द्र सेन 1916 ई. में गद्दी पर बैठा। उसने कमजोर वर्गों के लोगों में दास प्रथा का उन्मूलन किया और बेगार को समाप्त किया। 1936 ई. में उसे CSI की उपाधि दी गई।

हितेंद्र सेन :

1940 ई. में हमेन्द्र सेन की मृत्यु के बाद हितेंद्र सेन क्योंथल का राजा बना। वह क्योंथल का अंतिम राजा था। हिमाचल के अस्तित्व में आने के फलस्वरूप 1948 में क्योंथल रियासत महासू जिला में मिल गई।

भज्जी रियासत

भज्जी रियासत सतलुज की सहायक नदी नौटी खड्ड के किनारे अवस्थित थी। भज्जी रियासत की स्थापना कुटलैहड़ के वंशज “चारु” ने की थी जिसने बाद में अपना नाम बदलकर उदयपाल रख लिया था।

उदय पाल से लेकर 29 वीं पीढ़ी के सोहन पाल तक मूल भज्जी इनकी राजधानी रही। सोहन पाल ने सतलुज के किनारे सुन्नी गांव को बसाया और इसे अपनी राजधानी बनाया। 34वें ठाकुर जय चन्द ने बुशहर की सहायता से सुकेत पर आक्रमण किया।

1809 से 1815 तक इस रियासत पर गोरखों का अधिकार रहा। उस समय भज्जी का राजा रुद्र पाल था।

1844 ई. से 1875 ई. तक भज्जी पर रणबहादुर का शासन था। रणबहादुर सिंह के बाद दुर्गा सिंह गद्दी पर बैठा। भज्जी रियासत के अंतिम शासक राणा राम चन्द्र पाल थे। भज्जी ठकुराई अफीम उत्पादन के लिए प्रसिद्ध थी। 1948 ई. में हिमाचल प्रदेश बनने पर भज्जी ठाकुराई महासू जिला की सुन्नी तहसील बन गई। अब यह जिला शिमला का भाग है।

कोटी रियासत

कोटी रियासत शिमला की पूर्व दिशा में लगभग 70 वर्ग किलोमीटर में फैली एक रियासत थी। कोटी रियासत की स्थापना कुटलैहड़ रियासत के वंशज चारु के भाई चंद्र ने की थी । कोटी रियासत की राजधानी कोटी थी। जिसे बाद में तारा चन्द ठाकुर ने क्यार कोटी में स्थानांतरित किया। कोटी के बंदोबस्त रिपोर्ट के अनुसार 1948 तक 22 शासक बनते है। भज्जी की रिपोर्ट के अनुसार इसके 46 शासक हुए।

गोपी चन्द कोटी के संस्थापक से दसवां ठाकुर था। 1809 से 1815 तक कोटी रियासत गोरखों के अधीन रही। उस समय प्रताप चन्द कोटि का शासक था।

हरिचंद ने 1857 ई. में अंग्रेजों की मदद की जिसके बदले में उन्हें राणा का खिताब दिया। कोटी रियासत कुसुम्पटी तहसील का भाग बनकर 1948 ई. में (महासू जिला) हिमाचल प्रदेश में मिल गई।

धामी रियासत

धामी रियासत की स्थापना पृथ्वीराज चौहान के वंशज गोविंद पाल ने की थी जो राजपुरा (पटियाला) से धामी आया था। शिमला पहाड़ी रियासतों में धामी एकमात्र रियासत थी जिसकी स्थापना पृथ्वीराज चौहान के वंशजों ने की थी। शुरू-शुरू में धामी कहलूर (बिलासपुर) की ठुकराई रही। गोरखों ने जब इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया तो धामी रियासत भी उनके अधीन हो गई। अंग्रेज-गोरखा युद्ध में धामी के राणा गोवर्धन ने अंग्रेजों का साथ दिया इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने उन्हें स्वतंत्र सनद प्रदान की। गोवर्धन सिंह ने 1857 के विद्रोह में अंग्रजो का साथ दिया।

धामी रियासत की राजधानी हलोग थी। राणा हीरा सिंह के समय हलोग मे 1915 में धामी में पहली बार भूमि बंदोबस्त किया गया। यह एक कुशल प्रशासक था। इससे प्रसन्न होकर ब्रिटिश सरकार ने उसे 1913 में CIE की उपाधि से सम्मानित किया।

राणा दलीप सिंह को 1930 में राज्य का पूर्ण अधिकार दिए गए। इस राणा ने अपनी रियासत में पूर्ण रुप से नशाबंदी लागू कर दी थी । इसके शासन काल मे 1937 ई. में धामी प्रेम प्रचारिणी सभा बनाई गई। जिसका बाद में नाम बदलकर धामी रियासत प्रजामंडल रख दिया। 16 जुलाई को 1939 में धामी होली काण्ड हुआ।

15 अप्रैल 1948 को जब हिमाचल प्रदेश अस्तित्व में आया तो धामी को महासू जिला की कुसुम्पटी तहसील में मिला दिया गया।

15 अप्रैल 1948 ईस्वी को शिमला की 26 पहाड़ी रियासतों व ठकुराइयों को मिलाकर जिला महासू का गठन हुआ। संजौली, कोटगढ़ और भरोली के बदले 1950 ई. में पंजाब के साथ मिलाया गया। जिला महासू को समाप्त कर सितंबर 1972 को शिमला जिले का निर्माण किया गया। शिमला शहर, संजौली, कंडाघाट आदि 1 नवंबर 1966 ईस्वी को हिमाचल प्रदेश में मिलाए गए जिसके बाद 1972 में महासू और शिमला क्षेत्रों का पुनर्गठन कर शिमला व सोलन जिले का निर्माण किया गया।

Brief History of District Shimla -Himachal | शिमला जिला का इतिहास

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