Beth Begaar and Reet Social Practices in HP
बेठ का क्या अर्थ है ?
बेठ : निम्न जातियों से जबरदस्ती बिना मजदूरी दिए उच्च जातियों द्वारा सेवा प्राप्त करने की प्रथा बेठ कहलाती है। उच्च जाति के लोग निम्न जातियों के सेवकों की भाँति कार्य करवाते थे जिसमे सभी प्रकार के निम्न कार्य शामिल थे। यह प्रथा एक प्रकार की जजमानी प्रथा की तरह शिमला हिल स्टेट में व्याप्त थी। भूमि मालिक बिना मजदूरी के अपनी भूमि में (जिसे बासा कहते थे ) कार्य करवाते थे। कोली जाति ज्यादातर बेठ प्रदान करने वाली जाति थी।
बैठों की अदला-बदली की प्रथा भी प्रचलित थी। यदि भूमि को दहेज के रूप में लड़की को दे दिया जाता था तो बेठे भूमि प्राप्त होने वाले को मिल जाते थे। इन बेठों को भूमि का मालिकाना हक नहीं मिलता था निम्न जाति के लोग गाँव के भाईचारे के लिए निम्न कार्यों को भी करते थे। कोली बेठ 1889 शिमला जिला गजेट के अनुसार जिले का 20 प्रतिशत भाग थे। कोटखाई में 96% मूमि जमीदारों के पास थी जो निम्न जातियों से बेठ करवाते थे। रामपुर बुशहर में भी बेठ मजदूरी प्रचलित थी। वेठ प्रथा ब्रिटिश काल में आरक्षित वनों में भी प्रचलित थी
बेठ सेवा के बदले ‘छाक’ (भोजन), 2 जोड़ी कपड़ा और फसल का दसवाँ हिस्सा दिया जाता था बाद में 1940 में छाक (भोजन) की जगह 3 आना प्रतिदिन दिया जाने लगा तथा फसल के हिस्से के बजाय 12 से 18 रुपये प्रतिवर्ष दिया जाता था ब्रिटिश छावनी क्षेत्रों में बहुत से बेठों को सेवा के बदले नकद भुगतान किया जाता था। जिसमें कुली, हस्त रिक्शा चालक जैसे कार्य शामिल थे।
1939 में ब्रिटिशरों ने स्थानीय राजाओं को कहा कि बेठों को भूमि का मालिकाना हक दिया जाए। जिन पर वे कार्य कर रहे थे या फिर भूमि का मुआवजा लेकर उन्हें भूमि देने की व्यवस्था की जाए। बेठ या बेगार को 24 अगस्त 1943 को शिमला हिल स्टेट ने एक नीति बनाकर समाप्त किया। राज्य के बेठों को पालकी उठाने के अलावा सभी प्रकार की दास प्रथा से मुक्ति दे दी गई। जमीनदारों द्वारा रखे गए बेठों को जमीन का मालिकाना हक दे दिया गया जो तीन पुश्तों से जमीन पर खेती कर रह थे। तथा बाकी बचे बेठों को मुआवजा देकर जमीन का मालिकाना हक़ प्राप्त करने का अधिकार दिया गया।
बेगार (Begaar)
लोगों से बिना मजदूरी के काम करवाने की प्रथा को बेगार कहते है। विभिन्न राज्य द्वारा लोगों से बेगार करवाया जाता था। वेगार के दो स्वरूप प्रचलित थी
अथवार बेगार (Athvaar Begaar)
अथवार बेगार में पुरे वर्ष बिना मजदूरी के काम करवाया जाता था जिसमे उनके कार्य करवाए जाते थे – सामान को ढोना , डाक सेवा व एक राज्य से दूसरे राज्य में सन्देश पहुँचाना , चेकपोस्ट की रखवाली करना ,चौकियों की रखवाली करना , सड़क निर्माण , शिकार पर ब्रिटिश अधिकारियों के लिए मजदूरी , खाना बनाना ढोल बजाना तथा शिकार का पीछा करना जैसे कार्य करना , शाही परिवारों के लिए लकड़ियाँ और घास लाना।
हेला बेगार (Hela Begaar) :
कुछ खास अवसरों पर जैसे जन्म,मृत्यु, शादी आदि में राजा द्वारा जो बेगार करवाया जाता था , उसे हेला बेगार कहते है। इसमें ब्राह्मण , राजपूतों ,शाही लोगों को बेगार से छूट मिलती थी । इसमें कई बार राज्य विषय के मत्वपूर्ण कार्यों में भूस्वामियों को भी बेगार करना पड़ता था। 1815 ई. में सनद देने के दौरान ब्रिटिश अधिकारियों ने बेगार प्रथा को मान्यता दी थी तथा इसके प्रकार, मात्रा आदि का विवरण सनदों में किया गया था।
बेगार प्रथा के बिरुद्ध आंदोलन :
दुम्ह आंदोलन-बेगार के विरुद्ध दूम्ह आंदोलन हुआ। जिसमें सभी लोग शामिल हुए जो बेगार करके राज्य से बहुत दुखी हो चुके थे। ये लोगे बेगार नही देते थे और विरोध में पूरा गाँव पलायन कर देता था। ये लोग जंगलों और ऊँची पाहाडियों पर चले जाते थे। कभी-कभी ये आंदोलन हिंसक भी हो जाते थे। रामपुर बुशहर में 1854 ई. में किसानों ने ब्रिटिश राजस्व व्यवस्था के विरुद्ध खेतों में काम करना छोड़ दिया। सिरमौर में 1880 ई. में दूम्ह आंदोलन हिंसक हो गया। 1905 ई. में अथवार बेगार के विरुद्ध भागल राज्य में दुम्ह आंदोलन हुए। 1909 ई. में मंडी में शोभाराम मे दुम्ह की तर्ज पर आंदोलन चलाया। बेगार के विरुद्ध हिमाचल प्रदेश में प्रजामण्डल आंदोलन हुए। पझौता आंदोलन, धामी आंदोलन आदि सभी बेगार प्रधा के विरुद्ध हुए।
- सत्यानंद स्टोक्स ने बेगार प्रथा के ख़त्म के लिए आंदोलन चलाया।
- 1939 ई. में लुधियाना Al India State People काग्रेस में नेहरू ने बेगार प्रथा के विरुद्ध चिंता जाहिर की।
- पंजाब के पहाडी राज्यों के राजनीतिक प्रतिनिधि ने 1941 में बेगार प्रथा की जाँच शुरू की।
24 अगस्त, 1943 ई. को शिमला के पहाड़ी राज्यों मे एक नीति बनाकर बेठ और बेगार प्रथा को समाप्त कर दिया। - प्रजा मण्डल आदोलन एवं राष्ट्रीय आदोलन के दवाव में शिमला के पहाड़ी राज्यों को बैगार प्रधा खत्म करनी पड़ी।
रीत (Reet)
‘रीत’ का अर्थ है-पति द्वारा विवाह के समय पत्नी को दिए जाने वाले आभूषणों और कपड़ों की कीमत। इसमें उसके द्वारा किए गए विवाह सबंधी अन्य खर्चे भी जोड़े जाते हैं। जब पति-पत्नी के संबंध तनावपूर्ण हो जाते हैं तो लड़की अपने माता-पिता के घर चली जाती है। लड़की का पिता यदि अपने दामाद को रीत की राशि और ‘एक रूपया’ देने को तैयार हो जाए जिसे ‘छेद कराई’ कहते हैं तो तलाक की प्रक्रिया पूरी हो जाती है
विभिन्न विद्वानों और संस्थाओं द्वारा दी गई रीत की परिभाषा :
सिरमौर गजट के अनुसार रीत एक अनुवंध विवाह है जिसे स्त्री मुआवजा देकर तोड़ सकती है
डॉ. वाई एस. परमार के अनुसार रीत एक व्यवस्था थी जो कुछ के लिए विवाह और कुछ के लिए पुनर्विवाह या तलाक का नाम थी। काँगड़ा , बुशहर, कुल्लू, सिराज, लाहील में रीत को उन्होंने विवाह का रूप माना, जबकि सिरमौर में यह विघटन (तलाक) का रुप था। सिरमौर में स्री अपने पति को रीत लौटा दूसरा पति चुन सकती थी और पूर्वपति रीत लेने से मना भी नहीं कर पाता था। यह रीत की राशि पर जरूर आपति कर सकता था।
कर्नल बेस ने इसे विवाह नहीं माना बल्कि पहले पति को मुआवजा देने और अपनी मर्जी से दूसरा विवाह करने की छूट कहा।
रीत एक ऐसा अस्थाई विवाह था जिसमे कोई समारोह नही होता। इसमें स्री अपने पति को छोड़ कर अपने प्रेमी को अपना नया पति बना लेती थी। यदि वह (प्रेमी ) उसके पहले पति को वधु धन (रीत ) लौटा दे जो उसके पहले पति ने स्री के माता-पिता को विवाह के समय दिया था। हिमाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार की व्यवस्था वाली रीत प्रचलित थी।
शिमला में 1924 ई. के हिन्दू सम्मलेन में इसे ख़त्म करने की माँग उठी। हिमालय विद्या प्रबंधनी सभा के ठाकुर सूरत सिंह ने 1924 ई. में शिमला हिल स्टेट के सुपरिंटेंडेंट को पत्र लिखकर इस प्रथा को ख़त्म करने की मांग की क्योंकि इससे परिवार के विघटन और महिलाओं की तस्करी को बढ़ावा मिल रहा था।
बघाट के राजा राणा दलीप सिंह ने रीत के विरुद्ध 1917 ई में कानून बनाया जिसके अनुसार विवाहित स्री जिसका पति जीवित था ,उसके रीत विवाह को गैरकानूनी घोषित कर दिया था।
ज्यादातर राजाओं ने रीत का पक्ष लिया व इसे हटाने का विरोध किया। कोटी , रतेश , कहलूर , भज्जी , नालागढ़ , मधान , जुब्बल ,ठियोग , कुठार और कुमारसेन ठकुराई व रियासतों ने रीत पर कानून बनाने से मना किया। हिमालय विद्या प्रबंधनी सभा और ब्रिटिश दबाब में 16 जुलाई , 1926 को 21 पहाड़ी राज्यों ने सम्मलेन कर रीत को ख़त्म करने व विवाह से जुड़े नियम बनाने का फैसला किया।
Beth Begaar and Reet Social Practices in HP
लोगों से बिना मजदूरी के काम करवाने की प्रथा को बेगार कहते है।
लोगों से बिना मजदूरी के काम करवाने की प्रथा को बेगार कहते है।
निम्न जातियों से जबरदस्ती बिना मजदूरी दिए उच्च जातियों द्वारा सेवा प्राप्त करने की प्रथा बेठ कहलाती है।
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