किन्नर जनजाति : हिमाचल प्रदेश की जनजाति
परिचय –किन्नर या किन्नौरा वर्तमान किन्नौर निवासियों को कहते हैं। किन्नर शब्द संस्कृत के दो शब्दों किम + नर: से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है, ये कैसे नर हैं? (अयम किम नर:) ऋग्वेद, महाभारत व अन्य भारतीय वाङ्गमय से किन्नरों का वर्णन यक्षों और गंधर्वों के साथ आता है। उच्च गुणों ,सरल स्वभाव ,सुन्दर शरीर, सुरीले कंठ, और अन्य गुणों के कारण इन्हे शास्त्रों में देव की संज्ञा दी गई है। अर्जुन को अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े की रक्षा करते समय हिमालय में किन्नर मिले थे। किन्नर हिन्दू और बौद्ध धर्मों के अनुयायी हैं। इन्हें नेगी कहकर भी पुकारा जाता है, जो एक सम्मान सूचक संबोधन है भेड़ बकरियाँ और घोड़े पालना तथा ऊन का व्यापार करना इन लोगों का मुख्य व्यवसाय था परन्तु अब ये कृषि और बागवानी में भी किसी से पीछे नहीं।
तिब्बती लोग किन्नौर को ‘खुन्नू’ बुलाते हैं । लेह ( लद्दाख) में किन्नौर को ‘माँओ’ कहा जाता है। वायु पुराण में किन्नर लोगों को महन्द पर्वत का वासी कहा गया है । पाण्डवों ने किन्नौर क्षेत्र में अपना अज्ञातवास काटा था। मनु महाराज ने किन्नर को अब्राह्मण जाति कहा है ,लेकिन यह किरात ,खश ,कोल व नाग से भिन्न से भिन्न जाति है।
समाज एवं संस्कृति- किन्नौर तो पूरी तरह अब्राह्मण धरती है। यहाँ ब्राह्मणों का कोई प्रभाव नहीं है। यहाँ नेगी, ठाकुर और हाली, हेसी, सिप्पी, बाढ़ी, चनाल, डोम, खश, कनैत, पुहाल, भेड़पालक, अश्वपालक लोग रहते हैं। तिब्बत में जाति भेद या वर्ण भेद नहीं है जबकि किन्नरों में यह मौजूद है। यहाँ बहुपति प्रथा प्रचलित है।
किन्नौर जनजाति में खशिया और चमांग वर्ग आते हैं जिसमें खशिया का संबंध कनैत राजपूतों से है जबकि चमांग कोली के अंतर्गत् आते हैं। किन्नरों की स्वतंत्र भाषा है जिसे होमस्कद भी कहा जाता है। किन्नौर के ऊपरी क्षेत्रों में भोटी भाषा का भी प्रयोग किया जाता है। किन्नर लोंग मंगोलाइड प्रजाति से संबंधित है जिसमें आर्यन, द्रविड़ और मध्य एशिया की प्रजातियों के सम्मिश्रण भी दृष्टिगोचर होते हैं। किन्नौर के कनाम गाँव के निम्नवर्ती भाग के लोग हिन्दू तथा ऊपरवर्ती भाग के लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। यहाँ संपत्ति का बँटवारा जेठाँग और कनिशांग प्रथा से होता है ।
जाति प्रथा- राजपूत जाति जिन्हें कनैत, खश कहा जाता है यहाँ की उच्च जाति है। राजूपतों के बाद कोली जाति के लोग हस्तशिल्प,बुनना व चमड़े का कार्य करते हैं। खेती करने वाले कोली जाति के लोगों को हाली के नाम से पुकारा जाता हैं। यहाँ की जाति प्रथा में ब्राह्मणों का कोई स्थान नहीं है। जजमानी प्रथा की तरह यहाँ पर बायनाना प्रथा प्रचलित है। इस प्रथा के अनुसार राजपूत, कोली, लोहार, नागलू सभी जातियों में पारस्परिक सहायता की व्यवस्था होती है।
वेश भूषा : ये ज्यादातर ऊनी वस्त्र पहनते है। स्री पुरुष दोनों ,फेल्ट कैप जैसी ऊनी टोपी पहनते हैं। स्त्रियाँ कम्बल जैसी मोटी ऊन की साड़ी पहनती है। थेपाँग ( किनौरी टोपी ), छुबा ( लम्बा कोट ), यंगलक ( गर्म ऊनी शॉल )
विवाह- प्रेम विवाह (दमचलशिश, बेनगं हैचिश, डमटंग शिश, बुशिश), जबरन विवाह (दरोश डुबडुब, आचिश, हुचिश, न्यामशा देपांग), सामान्य विवाह (जनेटागं या जनेकागं।)
तलाक-थाग चोंचा अथववा शिग टाग-टाग कहा जाता है।
त्योहार- लोसर (नववर्ष), फागुली, चैत्राल, फुलैच
मृत्यु संस्कार- डुबंत, फुकंत और भखंत
धर्म- बौद्ध धर्म में सभी प्रकार की धार्मिक क्रियाओं का केन्द्र गोम्पा या लबरंग होते हैं जिसका मुखिया लामा होता है। किन्नौर में प्रत्येक देवी को गोहरी के नाम से पुकारा जाता है। यहाँ हिन्दू धर्म के उपासक प्रमुख देवता महेश्वर, चन्द्रिका, बदरी नारायण तथा डाबला है। सराहन बाणासूर की राजधानी थी। किन्नौर में कैलाश पर्वत है जिसे ‘रालडंग’ कहते हैं।
भाषा और साहित्य : किन्नरों की भाषा स्वतंत्र है ,जिसका नाम “हमस्कद” है , स्वतंत्र लिपि व्यवहार में नहीं है। कोई लिखित साहित्य भी नहीं है। लोक गीत बहुत सुंदर है। नागरी लिपि व्यवहार में आने लगी है। कुछ शब्द पढ़िए : ती (पानी ), किम (मकान ), बोलेंग (पेड़ ), लठरी (लोटा ), दाऊच (बहन ), तेते (दादा ),
किन्नर सामुदायिक सभा- समाज में कानून व्यवस्था बनाए रखने वाली इस संस्था को चारभाई कहते हैं जिसमें हालमंदी तथा टोकनियाँ होते हैं। इनमें एक मुखिया राजपूत परिवार से होता है, जबकि हालमंदी एवं टोकनियाँ कोली समाज के लोग होते हैं। अपहरण विवाह या तलाक के लिए इज्जत धन जुर्माना देना पड़ता है। किसी की संपत्ति हडपने पर तिचिग-मिचिग, देवता बुलाने पर न जाने पर शेप्टा दण्ड व जुर्माना देना पड़ता है।
नृत्य- क्यांग, बाकंयांग और बयांगछू।
आर्थिकी- किन्नौरी लोग प्रमुख रूप से पशुपालक कबीले हैं। कृषि और पशुपालन इनका प्रमुख व्यवसाय है । भेड़-बकरियों का पालन तथा ऊन निकालना इनका प्रमुख धन्धा है। ये लोग ऋतुनुसार भेड़-बकरियों के साथ प्रवास करते हैं । कृषि और बागवानी से भी ये लोग आजीविका प्राप्त करते हैं। सेब के उत्पादन से किन्नौरी जनजाति के लोग भारी मात्रा में लाभ प्राप्त कर रहे हैं । सेब, कागजी बादाम. न्योजा, सुखी खुमानी का उत्पादन यहाँ बड़ी मात्रा में होता है। कोली जाति के लोग भूमि जोतते हैं तथा सभी प्रकार के कृषि कार्य करते हैं जिसके बदले में उन्हें अनाज दिया जाता है। इसे शिंगमू या हाला प्रथा कहते हैं। किन्नौर की शॉलें विश्व प्रसिद्ध हैं। शॉलों के अलावा पटट, दोहड़ और टोपियाँ अन्य हस्तशिल्प निर्मित ऊनी वस्तुएँ हैं। रिब्बा को अँगूरों की भूमि कहा जाता है। पंद्रह बीस और अठारह बीस क्षेत्र किनौर में स्थित है।
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